जगत में कोई न परमानेंट: जो कुछ है, उसका सदुपयोग करें, सहेजें!
क्या सच में इस संसार में कुछ परमानेंट है क्या? यह बात आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि तथ्यात्मक भी है. आखिर 'संसार' को असार यूं ही नहीं कहा गया है. एक मनुष्य आखिर क्या कुछ नहीं करता है, संपत्ति इकठ्ठा करने के लिए, किन्तु यह संपत्ति क्षण भंगुर ही तो है! शास्त्रों में धन की तीन गति बतलाई गयी है: दान , भोग , नाश ! जी हाँ! धन की सबसे उत्तम गति 'दान' मानी जाती है, जो आपके साथ ही औरों का भी कल्याण करती है. वहीं धन की दूसरी गति 'भोग' मानी जाती है, अर्थात अपने लिए सुख-साधन इकठ्ठा करना, जो दान से निम्न श्रेणी में आती है. वहीं अगर धन के यह दोनों उपयोग आप नहीं कर पाते हैं, तो उसका 'नाश' होना एक प्रकार से तय हो जाता है. आप या आपकी पीढियां उसका दुरूपयोग ही करती हैं. पर मूल बात यह है कि धन 'परमानेंट' नहीं है. इसीलिए परिवार में प्रत्येक व्यक्ति को 'धन-संग्रह' की बजाय, उसके उपयोग का संस्कार अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा चीजें ध्वस्त होते देर नहीं लगती. अगर यकीन नहीं हो तो एक अमेरिकन अरबपति की कहानी पढिये, जो अरबों का मालिक होने के बाद भी किस प्रकार से एक