"युगे युगे राम": 'मिथिलेश दृष्टि' (पुस्तक - समीक्षा)
Yuge -Yuge Ram Book Review In Hindi |
आपका हृदय जब भी अशांत तो हो, तब प्रभु का नाम सबसे बड़ा सहारा है. इसके अतिरिक्त हृदय की अशांति दूर करने का कोई दूसरा उत्तम मार्ग भला क्या हो सकता है?
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
यह कोई एक या दो वर्ष पुराना मंत्र नहीं है, बल्कि इसकी महिमा कालजयी है। आधुनिक विज्ञान के दौर में भी अगर मानव मन में धर्म की महिमा शेष है, तो उसके पीछे यही सूत्र तो है! जब कोई भी मार्ग नजर नहीं आता है, तब प्रभु की शरण में हर व्यक्ति पहुँचता है।
इसी सन्दर्भ में कबीरदास कहते हैं कि
'दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय,
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।
इसका अभिप्राय बड़ा स्पष्ट है कि प्रभु का नाम हमेशा ही क्यों न लिया जाए! और अगर आप हमेशा उन्हें याद करते हैं, तो आपका मन फिर अशांत हो ही नहीं सकता। सांसारिक झंझावातों से निकलने का मार्ग आपको सहज ही प्राप्त हो जाएगा, या फिर झंझावातों को आप समस्या समझने की बजाय जीवन का अभिन्न अंग मानकर उनके साथ जीना सीख पाएंगे।
अब प्रश्न उठता है कि प्रभु का नाम कैसे लिया जाए, तो इस बारे में तुलसीदास ने स्पष्ट किया है कि
'भाय कुभाय अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
मतलब की चाहे आप भाव से, या फिर अभाव से, शत्रुता से या फिर आलस्य से, किसी भी प्रकार से अगर राम का नाम जपते हैं, तो दसों दिशाओं में आपका मंगल होना सुनिश्चित है।
यूं तो संसार में अनेकों कथाएं मौजूद हैं, और अनेकों कथाएं आएंगी भी, लेकिन रामकथा की अपनी महिमा है, और यह महिमा चारों युगों में विराजमान है। राम कथा के बारे में कहा गया है कि 'जब तक इस धरती पर पहाड़ और नदियां रहेंगी तब तक इस लोक में रामायण का प्रचार रहेगा ही रहेगा।
राम कथा की महिमा अनंत है, और मनुष्य एक जन्म में उसके रहस्य को नहीं पा सका है। इस पर एक से बढ़कर एक गूढ़ ग्रंथ भी लिखे गए हैं, तो संक्षिप्त टीकायें भी विद्यमान हैं।
सम्पूर्ण वाल्मीकि रामायण में जहाँ 24 हज़ार श्लोक हैं, वहीं यह एक श्लोक में भी रामकथा समाहित है।
आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं, सुग्रीव संभाषणम्।।
बाली निर्दलनं समुद्र तरणं, लंकापुरी दाहनम्।
पश्चाद् रावण कुम्भकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।
आधुनिक युग के कर्णधारों को संभवतः मोटी रामायण या श्रीरामचरितमानस पढ़ना बेशक धार्मिक कृत्य लगता हो, किंतु न केवल धार्मिक, बल्कि जीवन के चारों पुरुषार्थों धर्म के साथ-साथ अर्थ, काम, मोक्ष के सिद्धांतों का इसमें न केवल वर्णन है, बल्कि इसे जीवन जीते हुए सिद्ध भी किया गया है।
इस संसार में कहना तो कुछ भी आसान है, लेकिन उसे सिद्ध करना कठिन है, किंतु रामायण में यह स्पष्ट है। ऐसे में आजकल के युवाओं को, आज की पीढ़ी को श्री राम की महिमा जानने के लिए 'युगे युगे राम' पुस्तक अवश्य ही पढ़नी चाहिए।
प्रख्यात चिंतक, साहित्यकार, समाज विज्ञानी डॉ. विनोद बब्बर द्वारा रचित यह पुस्तक, विक्रम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है।
आजकल के लोगों में किस प्रकार से पुस्तक पढ़ने की आदत कम होती जा रही है, यह मैंने तब महसूस किया जब 160 पृष्ठ की किताब को पढ़ने में मुझे कई हफ्ते लग गए। हालांकि इसका कारण कम पढने की आदत के अतिरिक्त यह भी था कि इस किताब में आनंद आने लगा था, और जब भी मैं पिछले दिनों पढ़े पृष्ठ के आगे पढ़ने का यत्न करता था, तो पिछले पृष्ठ को एक बार और देख लेता था, उसे दुहरा लेता था, श्लोक - चौपाइयों - उद्धरणों पर मनन कर लेता था।
इस किताब में राम साहित्य के ऊपर विस्तृत जानकारी है, तो उसे वर्तमान से जोड़ने के लिए लेखक ने विशेष यत्न किया है। कोई भी कथा अपना महत्व तभी तक रखती है, जब वर्तमान में भी उसकी प्रासंगिकता हो। और युगे युगे राम पढ़ने के बाद आप यह निश्चित रूप से समझ पाएंगे, कि श्री राम का चरित्र वर्तमान में भी इतना व्यापक क्यों है।
इस बात में कोई दो राय नहीं है, कि न केवल अयोध्या में, न केवल भारत में, बल्कि संपूर्ण विश्व में श्री राम जैसा अखिल नायक कोई अन्य नहीं। मर्यादा पुरुषोत्तम की कसौटी पर सिर्फ एक ही नायक हैं और वह हैं 'श्री राम'।
'युगे युगे राम' के प्रत्येक अध्याय में श्लोक - चौपाई, भिन्न ग्रंथों के उद्धरण दिए हैं, उसने मुझे खासतौर पर आकर्षित किया। यूं तो कम पढ़ने की आदत के बावजूद भी मैं सतसंगत के कारण पढ़ता रहता हूं, किंतु इस किताब से मैंने एक प्रयोग यह भी शुरू किया कि संस्कृत के श्लोक, रामचरितमानस की चौपाई याद करना भी शुरू कर दिया।
रामचरितमानस की चौपाईयों को कंठस्थ करने का अपना आनंद है।
आगे बढ़ने से पहले इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान प्राप्त एक सुखद अनुभव को आप सबके साथ अवश्य शेयर करना चाहूंगा।
इस पुस्तक को पढ़ने के लिए अक्सर मैं सुबह और शाम को छत पर आ जाया करता था। एक दिन शाम को छत पर मेरे अपार्टमेंट के कुछ बच्चे भी खेल रहे थे, और मैं इस किताब में उद्धरित 'वसुधैव कुटुंबकम' के पूरे मंत्र को बोल बोल कर याद करने की कोशिश कर रहा था।
अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
थोड़ी देर बाद मुझे एहसास हुआ कि कुछ बच्चे भी इसकी आखिरी लाइन को गुनगुनाने लगे हैं। कुटुंबकम कुटुंबकम...
मैंने गौर किया तो सभी बच्चों को शांत करा कर इस मंत्र को पूरा उन्हें याद कराया। अब ना केवल वह पूरा मंत्र स्पष्ट बोलना सीख गए हैं, बल्कि अपने घरों में भी वह गुनगुनाने लगे हैं। अपार्टमेंट में रहने वाले उन बच्चों की माताओं ने जब मेरी पत्नी से कहा कि बच्चे यह मंत्र गुनगुना रहे हैं, तो मेरी आंतरिक खुशी का कोई ठिकाना ना रहा।
आधुनिक युग के यह वही बच्चे हैं, जिनके ऊपर यह आरोप लगाया जाता है, कि वह मोबाइल से दूर नहीं रहते। वह आधुनिक - खराब आदतों को जल्दी सीख जाते हैं, वह बड़ों की बात नहीं सुनते... आदि आदि!
पर सवाल वही है, कि क्या हम बड़े लोग भी वही नहीं करते?
अगर हम यह श्लोक बोलेंगे तो ना केवल हमारे बच्चे बल्कि, हमारे संपर्क में आने वाले सभी बच्चे यही बोलेंगे, उन्हें इसमें आनंद भी आएगा।
जरा कल्पना कीजिए कि रामचरितमानस की कथा उन बच्चों को सहज भाव से सुनाना, और उन्हें सुनाने की बजाय खुद पढ़ना, आत्मसात करना और उन्हें अपने साथ में रखना हमारे आस पास और अंततः समाज में कितना क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। और यह परिवर्तन वाह्य होने की बजाय आतंरिक होगा, जो एक बेहतर समाज के निर्माण में मजबूत एवं सकारात्मक भूमिका निभाएगा।
बहरहाल युगे युगे राम पुस्तक की बात करें, तो तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस अथवा श्री वाल्मीकि रामायण या किसी अन्य लेखक द्वारा रचित राम गाथा को पढ़ने से पहले इस पुस्तक को आप अवश्य पढ़ें। और इसके पीछे का तर्क यह है, कि जब हमें यह पता नहीं हो कि सोने की कीमत क्या है, सोने का प्रभाव क्या है, तब शायद हम उसकी उतनी कद्र ना करें, किंतु जब हमें पता लगेगा कि सोने की कद्र तो संपूर्ण विश्व में है, और यह कितना अद्भुत-कीमती रत्न है। तब हम उसे बेहद सहेज कर रखेंगे, उसके प्रति सजग रहेंगे।
युगे युगे राम पढ़ने के बाद आपको रामचरित की महिमा और अधिक स्पष्ट हो जाएगी, साथ ही जीवन के भिन्न पक्षों में उसका क्या प्रभाव होगा, इसे भी आप आत्मसात कर सकेंगे, अपना सकेंगे।
पद्मश्री डॉ. रमाकांत शुक्ल जी, जो देववाणी परिषद के अध्यक्ष भी हैं, उन्होंने इस पुस्तक की भूमिका लिखी है, और साहित्यकार डॉ. विनोद बब्बर के इस पुस्तक को एक सामाजिक दायित्व बताते हुए साहित्यकार को उन्होंने शुभकामनाएं दी हैं।
तत्पश्चात अपने मन की बात लिखते हुए लेखक डॉ. बब्बर ने रामायण के करूणा से उत्पन्न होने वाले श्लोक से इस पुस्तक की शुरुआत की है।
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्”
अर्थात महर्षि वाल्मीकि की रामायण करुणा से उत्पन्न हुई कृति है, और वह न केवल भारतीय बल्कि विश्व साहित्य को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। इसे लेखक ने इस पुस्तक 'युगे युगे राम' में सिद्ध भी किया है।
इस पुस्तक में कुल 27 अध्याय हैं, और हर एक अध्याय स्वयं में मौलिकता लिए हुए आपको रामकथा का विस्तृत प्रभाव न केवल बतलाता है, बल्कि उसमें समाहित कर लेता है।
- रामकथा युगे युगे
- संविधान, संसद और रामराज्य
- राम कथा साहित्य में प्रबंधन
- वर्तमान में राम की प्रासंगिकता
- राम कथा और सभ्यता का विकास
- राष्ट्र मंगल की संकल्पना हैं राम
- राम और राष्ट्र
- अखिल विश्व के नायक हैं राम
- मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
- सिया राम मय सब जग जानी
- क्या है सीता त्याग का सत्य?
- भारतीय संस्कृति के उन्नायक तुलसी
- रामकथा युग-युग अमर
- रामकाव्य में नारी विमर्श
- राम काव्य में पर्यावरण चेतना
- यहां राम, वहां भी राम
- पंजाब परंपरा में राम
- कम्ब रामायण की विशिष्ट मौलिकता
- जैन और बौद्ध रामायण
- रामकथा और लंका
- रामकथा संजीवनी
- राम का वंशज है भारतीय उपमहाद्वीप
- राम भक्ति को जीवंत करती रामलीलाएं
- पुतले जलाने वाले गुण भी देखें
- पुनः अवसर मिला तो गलतियां सुधारूंगा
- श्री राम की वंशावली
- और आखिर में श्री राम से जुड़े महत्वपूर्ण स्थान पर विस्तृत रूप से डॉक्टर विनोद बब्बर ने अपनी कलम चलाई है।
Yuge -Yuge Ram Book Review In Hindi by Mithilesh Kumar Singh |
अपने पहले ही अध्याय 'रामकथा युगे युगे' में लेखक ने यह सिद्ध किया है कि राम केवल त्रेता युग में ही नहीं जन्मे, बल्कि इस युग में भी राम हर जगह विद्यमान हैं। जब आप यह पहला अध्याय पढ़ेंगे तो आप वास्तव में समझ पाएंगे कि राम का चरित्र सिर्फ पढ़ने योग्य नहीं बल्कि, आत्मसात करने योग्य है। हम अपने जीवन में किसी भी पद पर चलें राम की शिक्षाएं, राम का आदर उतना ही प्रासंगिक है।
इस लेख में वर्तमान से रामकथा को जोड़ने में लेखक ने विशिष्ट मौलिकता प्रदर्शित की है, तो भाषा सहज रखते हुए कथा को ऐसा पिरोया है, कि आपको यह लगेगा कि यह कथा आपकी अपनी है, आपके आसपास की है।
संविधान संसद और रामराज्य, इस द्वितीय अध्याय में लेखक ने गांधीजी के रामराज्य की बात करते हुए वाल्मीकि रामायण में वर्णित सक्षम राजा, सरकार के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए बात आगे बढ़ाई है, तो भारतीय संसद में किन-किन जगहों पर हमारे शास्त्रों का कौन-कौन सा सूत्र वाक्य अंकित है, इसे स्पष्ट किया है।
जैसे लिफ्ट क्रमांक 2 के गुंबद पर मनुस्मृति से लिया गया यही श्लोक जो चुने हुए प्रतिनिधियों को उनके आचरण के प्रति सजग करता है।
सभा वा न प्रवेष्टव्या,
वक्तव्यं वा समंञ्जसम्।
अब्रुवन् विब्रुवन वापि,
नरो भवति किल्विषी।।
अर्थात भले ही कोई सभा में प्रवेश ही ना करे, किंतु जब प्रवेश करे तो ठीक तरह से धर्म एवं न्याय संगत वचन ही बोलने चाहिए। जो सदस्य सभा में बोलेगा ही नहीं, या झूठ बोलेगा वह पाप का भागी होगा।
इसी प्रकार संसद में और किन-किन जगहों पर किन-किन सूत्र वाक्यों का प्रयोग हुआ है, उसका सविस्तार इस लेख में वर्णन किया गया है, तो संविधान के मूल प्रति के भाग 3 पर राम जी के चित्र का जिक्र करते हुए लेखक ने बताया है कि राम जी से अधिक मूल अधिकारों का रक्षक कोई अन्य नहीं।
उन्होंने अपने मर्यादित आचरण से न केवल अपने माता पिता को सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया, बल्कि केवट से शबरी और भीलों, बनवासियों तक सबको गले लगाया। रामराज्य की संकल्पना लेखक ने पुनः दर्शाई है और इस जगत प्रसिद्ध चौपाई को वर्णित करते हुए अपना मंतव्य स्पष्ट किया है।
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहि ब्यापा,
'सब नर करही परस्पर प्रीति, चलही स्वधर्म निरत श्रुति नीति'
इसमें वर्णित दो अन्य चौपाई भी मेरे मन को छू गई, जो श्रीरामचरितमानस से ली गई है। यह चौपाईयाँ तब की हैं, जब भगवान श्री राम अयोध्या वासियों को संबोधित करते हैं। किस प्रकार से जनता से संवाद किया जाता है, यह इसका उत्तम प्रसंग है।
सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥
अर्थात नगर के वासियों को अपनी बात सुनाते हुए भगवान कहते हैं, कि ना मेरे हृदय में किसी प्रकार की मोह ममता से यह बात कह रहा हूं, नहीं अनीति से और नहीं प्रभुता से... इसीलिए संकोच - भय इत्यादि छोड़कर मेरी बातों को सुन लो और अगर तुम्हें यह अच्छी लगे तो उसके अनुसार अपने कर्म को करो।
इसी की अगली चौपाई लेखक ने यहां पर उद्धृत की है।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसासन मानै जोई।
जौं अनीति कुछ भाषौं भाई, तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।
इससे उत्तम उदाहरण भला क्या हो सकता है एक उत्तम राज्य-राजा एवं प्रजा का!
यहां पर यह कहा गया है कि भगवान को वही प्रिय है, जो उनका अनुशासन मानें, उनके अनुशासन - उनकी आज्ञा से संदर्भ है राज्य का अनुशासन, राज्य हित की आज्ञा। लोकतंत्र का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है। अगर भगवान स्वयं यह कहते हैं कि अगर मैं कोई अनीति की बात करता हूं तो भय त्याग कर मुझे तत्काल रोक देना।
राम कथा साहित्य में प्रबंधन तीसरा अध्याय है, और न केवल बाहरी बल्कि आंतरिक प्रबंधन में यह ग्रंथ आपको किस प्रकार से सहायता प्रदान कर सकता है, इस अध्याय में लेखक ने यह बात स्पष्ट की है। इसमें विनोदी स्वभाव को अनिवार्य प्रबंधन क्षमता बताते हुए आत्म प्रचार से बचना और परिस्थितियों से विचलित हुए बिना दृढ़ इच्छाशक्ति को बनाए रखना प्रबंधन कला का महत्वपूर्ण सूत्र है।
इसके अलावा कूटनीति को लेखक ने ऐसा शस्त्र बताया है, जिससे बिगड़ते विवाद का विवेक पूर्ण समाधान किया जा सकता है। भगवान राम ने स्वयं अपने जीवन में यह बात सिद्ध की है। इसके अतिरिक्त राम साहित्य में दिनचर्या का प्रबंधन कैसे किया जाए, अहम्, परिवार, सुख-दुख प्रबंधन किस प्रकार किया जाए, तृष्णा-प्रबंधन कैसे किया जाए, यह लेखक ने बताया है। जैसे:
बिनु संतोष न काम नसाहीं।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥
यह आपके मनोविकार को दूर करने में निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होगा। संतोष का मतलब कर्म करने से विरक्त होना नहीं है, किंतु सुख पूर्वक कर्म करना बिना उद्धिग्न हुए अपना कर्म करना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। यह बात आपको इस पुस्तक में स्पष्ट दिखेगी, जो आपको सम्पूर्ण श्रीरामचरितमानस पढने - अपनाने के प्रति दृढ विश्वास जगाएगी।
इसी प्रकार से वर्तमान में राम की प्रासंगिकता को भी लेखक ने सिद्ध किया है, और जिस प्रकार से भगवान राम सत्य के पक्षधर, अन्याय के विरोधी, पर दुखकातर, शरणागत रक्षक, दृढ़ संकल्प, धर्म परायण, मर्यादा पुरुषोत्तम, सामाजिक मर्यादाओं के व्यवस्थापक, दिन दलित उद्धारक, सौंदर्य, शक्ति, त्याग तपस्या की मूर्ति, समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी, प्रजा वत्सल राम राज्य के संस्थापक थे, उसी प्रकार से आज के समय में भी मनुष्य इन गुणों को अपनी जीवन यात्रा में साथी बना सकता है।
इसका अगला अध्याय बेहद महत्वपूर्ण है, कि रामकथा और सभ्यता का विकास किस प्रकार से हुआ। राम कथा ना केवल बाल्मीकि रामायण और तुलसी चरित्र श्री रामचरितमानस में वर्णित है, बल्कि वेदों तक में इसकी व्याख्या हुई है। यहां तक कि ऋग्वेद का एक श्लोक लेखक ने इस पुस्तक में उद्धृत किया है, और सभ्यता के विकास में रामकथा का महत्व लेखक ने प्रतिपादित किया है।
अगले अध्याय राष्ट्र मंगल की संकल्पना में आप समझ पाएंगे कि कैसे राम और भारत को अभिन्न नहीं माना जा सकता। जनता को धर्मनिष्ट और वीर्यवान बनाने के लिए रामकथा किस प्रकार सहायता कर सकती है, इसका वर्णन आप इसमें देखेंगे। इसका अगला अध्याय भी राम और राष्ट्र है।
राम और राष्ट्र, राष्ट्र और राम, राम का राज्य, राज्य के राम, इन शब्दों में साम्य में देखते हुए राम के चरित्र में भी साम्य इस पुस्तक में प्रदर्शित किया गया है। मर्यादा की सूक्ष्म रेखा क्या होती है, और आज के समय में बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी किसी को इसका किसी को अपराध बोध क्यों नहीं रहता... साथ ही उस से राष्ट्र को कितनी हानि होती है, यह हम सब को जानना चाहिए, समझना चाहिए। राम को देखने वालों की दृष्टि संकुचित होने की बजाय विस्तृत होनी चाहिए, क्योंकि तुलसीदास ने कहा है कि
जाकी रही भावना जैसी, तिन देखी प्रभु मूरत तैसी।
भगवान राम आखिर क्या नहीं हैं?
आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श शिष्य, आदर्श पति, आदर्श राज कुमार, आदर्श वनवासी, आदर्श मित्र, आदर्श शत्रु, आदर्श राजा, आदर्श स्वामी, आदर्श सेवक। इतना ही नहीं, घट घट में राम विराजमान हैं, और अगर आप राम से जुड़ते हैं, तो निश्चित रूप से आप राष्ट्र से जुड़ते हैं, संपूर्ण मानवता से जुड़ते हैं।
व्यक्तिगत रूप से इसमें वर्णित पृष्ठ 51 एवं 52 पर एक लाइन से मैं बड़ा सहमत हूं कि राम के लिए लोकमत के साथ-साथ नैतिक मर्यादा बेहद महत्वपूर्ण थी। कई बार ऐसा होता है, कि नैतिक मर्यादा के ऊपर लोकमत भारी पड़ जाता है, और यह हमने तब देखा, जब रामायण में लव कुश द्वारा अयोध्या वासियों को जगाने का प्रयत्न किया गया।
इसी अध्याय में भारतवर्ष के विभिन्न जगहों का नाम से संबंध भी लेखक ने वर्णित किया है। आज अपने स्वार्थ के लिए अपने पूर्वजों की सांस्कृतिक विरासत को लोग विस्मृत कर रहे हैं, उपेक्षित कर रहे हैं, जबकि इसे डॉ. विनोद बब्बर ने अपने लेख में कृतघ्नता बतलाया है, जो अक्षरशः सत्य है।
इसी अध्याय में अथर्ववेद के एक श्लोक में कहा गया है कि
'शतहस्त समाहर, सहस्रहस्त संकिर'
अर्थात सौ सौ हाथों से कमा और हजार हजार हाथों से बांट"... वास्तव में यही तो है, भारत की मूल संस्कृति।
हम आप सभी श्री रामचरितमानस का पाठ करते हैं, उसे भिन्न धार्मिक आयोजनों में सुनते हैं, किंतु राम की महिमा कितनी व्यापक है, एक भगवान के साथ-साथ एक मनुष्य के रूप में उनके चरित्र से कितनी प्रेरणा ली जा सकती है, सदियों से वह किस प्रकार से न केवल भारत को बल्कि संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में जोड़ने हेतु प्रेरित करते रहे हैं, यह बात यह पुस्तक युगे युगे राम आपको स्पष्ट रूप से बतलायेगी।
इसका अगला अध्याय है, अखिल विश्व के नायक 'राम'
न केवल भारत, बल्कि इंडोनेशिया, कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, लाओ, जापान, फिलीपींस, चाइना, मारीशस आदि देशों में भिन्न-भिन्न राम कथाएं किस प्रकार से वहां के जनमानस के चरित्र उत्थान में मदद करती हैं, इसे लेखक ने स्पष्ट किया है।
जैसे इंडोनेशिया में रामायण पर हाथ रखकर शपथ ली जाती है, तो थाईलैंड में भी राम कथा बेहद समृद्ध है। बौद्ध जातकों के माध्यम से चीन आदि देशों में रामकथा पहुंची। इसके अलावा मारीशस की संसद में 2001 में रामायण सेंटर बनाने का जिक्र करते हुए संपूर्ण विश्व में भगवान राम की उपस्थिति का जिक्र लेखक ने स्पष्टता के साथ किया है। लेखक यह बताना नहीं भूले हैं कि उपनिवेश काल में मारीशस, फिजी आदि देशों में तमाम मजदूरों के साथ रामचरितमानस भी वहां पहुंची थी, और उसी वजह से भारतीयता वहां जीवंत भी रही।
दिनभर अंग्रेजों के अत्याचारों से परेशान गिरमिटिये रात्रि में एक ही स्थान पर बैठकर मस्ती से मानस की चौपाइयां गाते, और इस बात को मैं उसी बात से लिंक करूंगा जो मैंने अपनी छत पर, छोटे बच्चों के साथ 'वसुधैव कुटुंबकम' को कंठस्थ करने में अनुभव किया।
जब आप रामचरितमानस की चौपाइयां गुनगुनायेंगे, तब आपके बच्चे आपके आसपास का संस्कार भी, भारतीयता भी जीवंत रहेगी।
अगले अध्याय में मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथा के बारे में डॉ. बब्बर ने बताते हुए कहा है, कि राम न केवल बड़े प्रतापी, सहनशील, धर्मात्मा, प्रजा पालक, निष्पाप, निष्कलंक थे, बल्कि उन्होंने आदर्श व्यवहार की मर्यादाएं भी स्थापित की। वास्तव में देखा जाए तो संघर्ष कब उत्पन्न होता है?
जब एक व्यक्ति मर्यादा का उल्लंघन करता है, तभी तो संघर्ष की स्थिति आती है।
स्वतंत्रता की एक अन्य परिभाषा में भी कहा गया है कि मेरी नाक वहां से शुरू होती है जहां तुम्हारी नाक समाप्त होती है।
मर्यादा ही तो इस संसार का आधार है। जमीन जायदाद में अगर 1 इंच भी इधर-उधर नाप हुआ तो तलवारें खिंच जाती हैं, गोली बंदूक निकल जाती हैं। गांव में आप देखते हैं, जिसको खेत की मेड़ बोलते हैं... वही तो मर्यादा है! एक खेत से दूसरे खेत को पृथक करने वाली मेड़ ही तो है। यह जब तक ठीक है, सब ठीक है, अन्यथा कोर्ट-कचहरी और क्षण भर में ही जाने क्या क्या हो जाता है।
यही तो मर्यादा है हमारे जीवन में, और श्री रामचरितमानस से बढ़कर कोई अन्य चरित्र, मर्यादा की संपूर्ण व्याख्या शायद ही करता हो। अगर मर्यादा रहे तो फिर संघर्ष क्यों? जब कोई मर्यादा का उल्लंघन करता है, वहां से संघर्ष जन्म ले लेता है।
बहरहाल लेखक ने इसमें बतलाया है, कि लोकश्रुति के अनुसार राम कथा सबसे पहले भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। माना जाता है, कि जब भगवान शंकर राम कथा सुना रहे थे, तो निकट के घोंसले में बैठा एक काग - अर्थात कौवा भी उस कथा को सुन रहा था और बाद में उसी का पुनर्जन्म कागभुशुण्डि के रूप में हुआ।
कागभुसुंडि द्वारा यह कथा गरुड़ को सुनाई गई, और इस तरह से शंकर जी के मुख द्वारा प्रवाहित राम कथा अध्यात्म रामायण के नाम से जानी जाती है। अध्यात्म रामायण को ही सर्वप्रथम रामायण कहा जाता है। इसी प्रसंग में आगे बतया गया है कि एक बार जब नारद जी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में पहुंचे तो, बाल्मीकि ने उनसे प्रश्न किया कि इस संसार में वीर धर्म को जानने वाला, कृतज्ञ सत्यवादी सच्चरित्र, सभी प्राणियों का हितकारी, विद्वान, उत्तम कार्य करने में समर्थ, सबके लिए प्रियदर्शन वाला, जितेंद्रीय, क्रोध को जीतने वाला, तेजस्वी, ईर्ष्या ना करने वाला, युद्ध में क्रोध आने पर देवता भी जिससे भयभीत हो जाएँ, ऐसा मनुष्य कौन है? यह जानने की बाल्मीकि जी को उत्सुकता थी, तब नारदजी ने उन्हें ऐसे दुर्लभ गुणों वाले भगवान राम का वृतांत सुनाया।
रामकथा वास्तव में कहां से उत्पन्न हुई, यह मुझे पहले से ज्ञान नहीं था, पर वास्तव में किस प्रकार से एक क्रम चला आ रहा है, और युगों युगों तक रामकथा कैसे, ना केवल मनुष्य बल्कि देवताओं तक में कही सुनी जाती रही है, इस बात का प्रमाण मिलता है।
इस पुस्तक का शीर्षक 'युगे युगे राम' निश्चित रूप से यहाँ सार्थक सिद्ध होता है।
हम सभी जानते हैं, कि रघुकुल में 'प्राण जाए पर वचन न जाई' का आदर्श स्थापित किया गया है, और इसे सिद्ध भी किया गया है। राम ने अपने पिता श्री के द्वारा मांगे गए वचनों के कारण जब उन्हें परेशान देखा तब उनसे कहा कि आप मुझे बताइए और आपके वचन को मैं पूरा करूंगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है। राम किसी बात को दूसरी बार नहीं कहता! वर्तमान में आई किसी हिंदी फिल्म का यह डायलॉग कि "एक वार कमिटमेंट कर देने के बाद मैं अपने आप की भी नहीं सुनता", उसका मूल यही रामकथा ही तो है।
इसी पुस्तक में पृष्ठ संख्या 63 पर वर्णित श्री राम का यह कथन पढ़ने योग्य है, जब चित्रकूट में भरत और तमाम मंत्रियों ने उनसे लौटने का आग्रह किया, तब भगवान राम ने कहा कि अपने को वीर कहलाने वाला व्यक्ति कुलीन है, अथवा अकुलीन है, अपवित्र है अथवा और पवित्र, यह उसके चरित्र से ही विदित हो सकता है।
यदि मैं धर्म का ढोंग करूँ, परंतु आचरण धर्म के विरुद्ध करूं, तो समझदार पुरुष मेरा मान नहीं करेंगे। उस दशा में मैं कुल का कलंक ही माना जाऊंगा।
किस प्रकार से वचन और कर्म में समानता होती है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण भगवान राम ही तो हैं। इसी प्रकार से पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई की 1977 में विदेश मंत्री के रूप में की गई इंडोनेशिया की यात्रा का जिक्र करते हुए कहा है, कि वहां के विदेश मंत्री ने बाजपेई जी से कहा कि "हमने अपना मजहब बदला है, पूर्वज नहीं बदले... अर्थात राम आज भी हमारे पूर्वज हैं।"
इसी लेख में अंग्रेज अधिकारी मिस्टर ग्राउंड की चर्चा करते हुए डॉक्टर बब्बर ने कहा है कि उन्होंने तुलसीकृत रामचरितमानस का अंग्रेजी में अनुवाद किया। स्वामी श्रद्धानंद से हुई इस अंग्रेज अधिकारी के चर्चा का जिक्र करते हुए इस पुस्तक में उदाहरण है, कि जगत के साहित्य में राम जैसा आदर्श पात्र कहीं और नहीं मिलता।
इसी प्रकार से आगे के अध्याय में 'सिया राम मय सब जग जानी' में हर जगह राम की व्यापकता को लेखक ने सुनिश्चित किया है, तो अगले अध्याय में सीता त्याग के अन्य पक्षों की भी खुलकर चर्चा की है। योगी वशिष्ठ रामायण से लेकर राम जनक संवाद और महर्षि वात्सायन के सीता त्याग वाले प्रसंग पर चर्चा के लिए भगवान से किया जाने वाला निवेदन, लोकोक्तियों के अनुसार जनक वाटिका में सीता जी द्वारा तोते के रूप में मादा पक्षी को पकड़ना और फिर उसका प्राण त्याग करना आपको निश्चित रूप से भावुक कर देगा।
सीता त्याग पर प्रश्नचिन्ह उठाने वालों को डॉ. विनोद बब्बर की पुस्तक का यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए, इसमें आपको निश्चित रूप से कई अन्य पहलू नजर आएंगे।
धागे के अध्याय में भारतीय संस्कृति के उन्नायक तुलसीदास की बात करते हुए विनोद बब्बर ने श्री रामचरित की महिमा को संदर्भित किया है। श्री रामचरितमानस में वर्णित की चौपाइयों का जिक्र है, जिसको पढ़ते हुए आपको असीम आनंद की अनुभूति होगी। डॉ. बब्बर के इस पुस्तक की खासियत यह है कि आप चाहे इसका कोई भी अध्याय पढ़ें, वह आपको वर्तमान से जुड़ा हुआ मिलेगा।
जैसे जिस प्रकार से रावण ने विद्वानों की राय की परवाह ना की, उसे आज के समय में जनता की राय की परवाह न करने वाला और अलोकतांत्रिक होने से लेखक ने जोड़ा है। इस तरह के दूसरे अन्य प्रसंग में भी माना जाता है कि तुलसी काव्य शास्त्र में वर्णित सभी छः प्रमुख मानदंड - रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति और औचित्य मनुष्य के स्वभाव में विराजमान हैं, और कलयुग में मनुष्य की स्वाभाविक कुटिलता के उपचार का सबसे सुगम साधन श्रीरामचरितमानस है। और इसके लिए तुलसीदास जी संपूर्ण जगत के आदर्श साहित्यकार हैं।
'राम कथा युग युग अमर' अमर शीर्षक वाले लेख में कबीर के श्लोक की चर्चा करते हुए डॉ. बब्बर ने कहा है कि
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा,
एक राम का सकल पसारा, एक राम सब होते न्यारा।
राम की महिमा अनंत है, इसके अलावा राम कथा के सन्दर्भ में डॉ. राम मनोहर लोहिया, सीमांत गांधी और ऐसे महापुरुषों का वर्णन इस लेख में करते हुए डॉ. बब्बर ने याद दिलाया है, कि कर्तव्य ऊपर से थोपे नहीं जा सकते।
अखिल विश्व के नायक राम के मुख से सताए हुए लोगों की रक्षा का प्रण लेते हुए स्पष्ट करते हैं कि
'निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥
आजीवन एक पत्नी व्रत के कठोरता से पालन जैसे प्रसंग को उद्धृत करते हुए निश्चित रूप से भगवान राम को आदर्श पुरुष और युग युग में अमर बतलाना इस पुस्तक की सार्थकता है।
अगले अध्याय रामकथा में नारी विमर्श पर डॉ. बब्बर ने स्पष्ट रूप से याद दिलाया है कि रामकथा जैसी नारी विमर्श कहीं अन्यत्र नहीं। न सिर्फ ऊपरी दिखावा, बल्कि अंतरमन से यह स्वयंसिद्ध है।
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई, तहिं बंधे कछु पाप न होइ।।
इसके अलावा बाल्मीकि रामायण में नारी की यथार्थ चित्रण करते हुए, यह भी वर्णित किया गया है कि जब सीता राम के जीवन में नहीं थीं, तब भी भगवान राम को सोने की सीता को अपने बगल में बैठा कर अपना यज्ञ संपूर्ण करना पड़ा, अर्थात् पत्नी के बिना कोई भी शुभ कार्य होना असंभव बताया गया है। श्री रामचरितमानस की इस महिमा को नारी विमर्श का सर्वोत्कृष्ट रूप माना जा सकता है।
राम कथा में पर्यावरण चेतना की भी स्पष्ट बात की गई है, और डॉ. बब्बर ने याद दिलाया है कि वृक्ष से फल तोड़कर खाना तो उचित है, किंतु वृक्ष को काटना अपराध की श्रेणी में आता है। इसी प्रकार के अनेक प्रसंग आपको इसमें मिलेंगे जो पर्यावरण चेतना के प्रति आप को न केवल सजग करेंगे, बल्कि उचित कर्तव्य मार्ग पर भी प्रेरित करेंगे।
'यहां राम वहां राम' में भी अनेक शोधों का जिक्र करते हुए लेखक ने बताया है कि अंग्रेजी भाषा में रामकथा कितनी व्यापक हुई है।
इसका विस्तृत जिक्र इस पुस्तक में हुआ है, तो पंजाब परंपरा में राम शीर्षक से लिखे गए लेख में लेखक यह याद दिलाते हैं कि पंजाब में राम काव्य की एक लंबी परंपरा रही है। यहां तक कि किसी कवि को कवि-मंडली में तभी शामिल किया जाता रहा है, जो पूरी रामकथा को काव्य रूप में प्रस्तुत कर चुका हो। अर्थात कवि वही होगा जो रामकथा को पूरा लिखे, अपने शब्दों में।
लेखक यहाँ श्री गुरुग्रंथ साहिब एवं श्रीरामचरित मानस के उद्धरणों को लेकर कई साम्य दर्शाते हैं।
एक प्रसंग देखें, जो रामचरितमानस के बालकांड में कुछ यूं बताया गया है।
अपतु अजामिल गज गनिकाऊ ! भये मुकुत हरि नाम पभाऊ !!
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
इसी के समान श्री गुरु ग्रंथ साहिब में भी प्रसंग वर्णित है।
अजामल गज गणिका पतित करम किने।
तेउ उतरि पारी परे राम नाम लीने।।
अगला अध्याय कंब रामायण की विशिष्ट मौलिकता को समर्पित है, और यह बताना आवश्यक है, कि बाल्मीकि रामायण आधारित श्री रामचरितमानस जैसा ही स्थान भारतीय साहित्य में कंब रामायण का भी है। यह बेहद लोकप्रिय और चर्चित मानी जाती है। 1178 ईस्वी में तंजावुर के तिरुवलमपुर नामक स्थान पर जन्मे कवि चक्रवर्ती कम्बन ने बाल्मीकि रामायण के आधार पर ही कंब रामायण की रचना की। इसमें आप देखेंगे कि कंब रामायण का प्रभाव खुद श्रीरामचरितमानस पर भी है।
इसी प्रकार से अगला अध्याय जैन और बौद्ध रामायण पर आधारित है। इसमें इन संप्रदायों पर भगवान राम के चरित्र, भगवान राम के साहित्य का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जाहिर तौर पर इस धरती के सभी संप्रदायों की चिंतन धारा में काफी समानता है, और इसी को लेखक ने दर्शाया है।
अगले अध्याय राम कथा और लंका का वर्णन लेखक ने बेहद रोचक ढंग से किया है। इसमें श्रीलंका की संसद में 1959 में एक चर्चा के दौरान यह प्रश्न उठा था कि श्रीलंका आने वाला प्रथम विदेशी यात्री कौन था, तो सरकारी प्रवक्ता द्वारा इसके उत्तर में कहा गया था कि लंका आने वाली प्रथम विदेशी यात्री सीता माता थीं।
और भी कई आधुनिक प्रसंगों द्वारा लंका के बारे में वर्णन आपको मिलेगा। लेखक यह बतलाते हैं कि स्वयं श्रीलंका में सिंहली भाषा में अनेक लेखकों द्वारा रामायण लिखी गई है, जिनमें कुमार दास का जानकी हरण ग्रंथ सर्वाधिक चर्चित माना जाता है।
अगला अध्याय राम कथा संजीवनी का है, और इसमें इसके प्रथम अध्याय की झलक मिलती है, और वह यही है कि हर व्यक्ति का जीवन स्वयं में एक कथा है, और हर व्यक्ति राम को स्वयं के भीतर महसूस भी कर सकता है। हालांकि राम कथा जैसी सर्वग्राह्यता किसी अन्य कथा को नहीं मिली है, और इसका कारण यही है कि मर्यादाओं का सर्वोत्कृष्ट रूप अगर कोई है तो वह राम ही हैI
रामकथा को संजीवनी बताते हुए लक्ष्मण मूर्छा की चर्चा भी लेखक इस लेख में करते हैं और राम के विलाप की भी चर्चा उस वक्त के परिस्थिति के अनुसार लेखक करते हुए कहते हैं कि
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥
रामकथा ससुर को सम्मान देना सिखलाने के साथ-साथ आजकल के परिवारों से कलह कैसे दूर हो, इस विधि को याद दिलाती है। जाहिर तौर पर तुलसीदास का कहना कहीं से भी मिथ्या नहीं है, कि यह राम का वैशिष्ट्य ही है, जो धरा को आकाश बना सकता है।
डॉ. विष्णु कांत शास्त्री द्वारा लिखी गई कुछ लाइनें यहां उद्धृत करने योग्य है कि
बड़ा काम कैसे होता है -पूछा मेरे मन ने
बड़ा लक्ष्य हो- बड़ी तपस्या
बड़ा हृदय, मृदु बानी
किंतु अहम छोटा हो
जिससे सहज मिले सहयोगी
दोष हमारा - श्रेय राम का यह प्रवृति कल्याणी !
जाहिर तौर पर आप कुछ बड़ा करना चाहते हैं तो पृष्ठ संख्या 133 और 134 वर्णित इस व्याख्या को अवश्य देखें।
अगला अध्याय राम का वंशज है भारतीय उपमहाद्वीप
इसमें भिन्न संस्कृतियों में, भिन्न संप्रदायों में, भिन्न कवियों जैसे रहीम, अमीर खुसरो, बाबू सिंह बालियान द्वारा लिखे गए प्रसंगों- उदाहरणों की चर्चा है, और निश्चित रूप से इस बात में कहीं कोई संदेह नहीं है, कि यह संपूर्ण उपमहाद्वीप राम का ही वंशज है। समय बदलने के साथ वर्तमान बदल सकता है, भविष्य बदल सकता है, लेकिन हमारा भूत नहीं बदल सकता, हमारे वंशज नहीं बदल सकते।
अगला अध्याय राम कथा को जीवंत करती रामलीलाओं का है, और देश भर में अलग-अलग जगहों पर प्रचलित लोकप्रिय रामलीलाओं का जिक्र करते हुए लेखक ने इसकी बड़ी रोचक व्याख्या की है। इस अध्याय की शुरुआत करते हुए डॉ. बब्बर कहते हैं कि जिस कार्य को करने, देखने अथवा स्मरण करने से हमारा मन बुद्धि सद्मार्ग की ओर आकर्षित होती है, उसे बारंबार करना चाहिए।
काशी की रामनगर की प्रसिद्ध रामलीला के मंच पर अंकित है कि रामलीला करने और देखने से मनुष्य पाप से मुक्त होता है।
यह सत्य है कि रामलीला धार्मिक परंपरा होने के बावजूद भी सामुदायिक और सामाजिक परंपरा कहीं ज्यादा है, जिसमें संपूर्ण समाज एक सूत्र में बंध जाता है।
ऐसा माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रामलीला की परंपरा शुरू कराई गई, किंतु लेखक ने यह बताया है कि भारत में शोभा यात्रा की परंपरा से रामलीला से भी पूर्व से जुड़ी हुई है। यहाँ इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक निर्णय की चर्चा करते हुए यह उद्धृत किया गया है, कि मानस की रचना से पूर्व ही रामलीला होती थी।
मतलब कि सदियों सदियों तक बिना किसी सरकार के सहयोग के, बिना किसी उद्योगपति के धन के इस तरह की परंपराएं आखिर कैसे चलती हैं, यह शोध का विषय है।
पर यही तो रामकथा की महिमा है, जो अनंत है।
यही बात भारतीय संस्कृति के कुंभ के बारे में भी कही जाती है, कि स्वप्रेरित होकर जनता कैसे इतने बड़े आयोजनों में जाती है। यह वर्तमान इवेंट प्लानर्स के लिए एक शोध का विषय हो सकता है। मुगलों द्वारा तमाम अत्याचार करने के बावजूद भी यह परंपराएं नष्ट नहीं हुई, बल्कि वल्लभाचार्य जी द्वारा रासलीला की परंपरा शुरू की गई, जिसने संपूर्ण समाज को एक सूत्र में बांध दिया।
कहने वाले लोग कह सकते हैं कि इसकी क्या आवश्यकता है, या इसका क्या औचित्य है, किंतु इस लेख को अगर आप पढ़ेंगे तो आप समझ पाएंगे, कि समाज के निर्माण में पीढ़ियों के निर्माण में रामलीला और ऐसे सामुदायिक कार्यक्रमों का वास्तविक महत्व क्या है? और अगर संसार में भारतीयता आज भी बची हुई है, तो उसमें इसी तरह के इनीशिएटिव्स की महत्ता सर्वोच्च है।
काशी के भिन्न रामलीला में कथा और दृश्य में जीवंतता का एहसास होता है, तो देश में अन्य स्थानों पर की जाने वाली कुछ रामलीलाओं का जिक्र लेखक द्वारा इस लेख में किया गया है।
इसके बाद दिल्ली के टैगोर गार्डन मेट्रो स्टेशन के पास सीतापुर में स्थित रावण मंडी का जिक्र लेखक ने अगले लेख 'पुतले जलाने वाले गुण भी देखें' में किया है, और वर्तमान में मनुष्य के मन में व्याप्त बुराइयों का एहसास कराते हुए लेखक यह निसंकोच कहता है कि हमारी वृत्ति के समक्ष तो वह रावण बहुत छोटा था। उस रावण के बारे में तो बहुत अच्छी बातें भी रामायण में कही गई हैं - जैसे
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
अर्थात रूप, सौंदर्य, धैर्य, कांति तथा सर्व लक्षण युक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान ना होता, तो यह देव लोक का भी स्वामी हो जाता। रावण की महानता के बारे में वह प्रसंग भी जानने योग्य है, जब भगवान राम उसकी मृत्यु के समय लक्ष्मण को उसके पास भेजते हैं। किस प्रकार से किसी व्यक्ति से ज्ञान लेना हो तो उसके सिर के पास जाने के बजाए उसके पैरों के पास खड़े होना चाहिए, यह बारम्बार कहने सुनने योग्य प्रसंग है।
रावण द्वारा अंत समय में दी गई 3 शिक्षाओं की चर्चा भी लेखक ने यहां की है। शुभस्य शीघ्रम - शुभ कार्य को जल्दी करना और अशुभ कार्यों को टाल देना।
इसके अलावा अपने प्रतिद्वंदी को कभी छोटा नहीं समझना। जैसे रावण ने बंदर भालू को छोटा समझा।
इसके अलावा अपने जीवन का महत्वपूर्ण राज किसी को नहीं बताना, जैसे विभीषण रावण का राज जानता था।
तो यह तीन शिक्षाएं देकर रावण ने यह सिद्ध किया कि वह परम ज्ञानी था और कहीं ना कहीं अधर्म के कारण वह इस मार्ग पर प्रवृत्त हुआ, अन्यथा उसकी विद्वता स्वयंसिद्ध थी।
इसके अगले अध्याय में रामानंद सागर द्वारा निर्मित रामायण धारावाहिक में रावण का किरदार निभाने वाले अरविंद त्रिवेदी से लेखक की मुलाकात का जिक्र है। साथ ही इसमें धारावाहिक के रावण क्या सोचते हैं, आपको इस साक्षात्कार में पता लगेगा।
गुजराती फिल्मों के महानतम अभिनेताओं में शुमार अरविंद त्रिवेदी का लंकेश का किरदार सदियों तक अमर रहेगा इस बात में कोई दो राय नहीं। बहुत सारी रामायण बनी, लेकिन इस लंकेश का कोई सानी नहीं। अतः यह साक्षात्कार अवश्य पढ़ें।
अगले लेख में श्री राम की वंशावली के बारे में बताया गया है और वह इस लेख में मैं पूरा देना चाहूंगा, ताकि यह जानकारी लोगों तक पहुंच जाए । हालांकि आदर्श रूप में आपको इसे पुस्तक में पढ़ना चाहिए, लेकिन सभी के लिए श्री राम की वंशावली यही प्रस्तुत कर रहा हूं।
वंशवेल के अनुसार इक्ष्वाकु से यह वंशावली प्रारंभ होती है।
- इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि
- कुक्षि के पुत्र विकुक्षि,
- विकुक्षि के पुत्र बाण,
- बाण के पुत्र अनरण्य,
- अनरण्य के पुत्र पृथु,
- पृथु के पुत्र त्रिशंकु,
- त्रिशंकु के पुत्र धुन्धुमार और
- धुन्धुमार के पुत्र युवनाश्व,
- युवनाश्व के सुपुत्र मांधाता,
- मांधाता से सुसन्धि,
- सुसंधि के 2 पुत्र हुए ध्रुवसंधि एवं प्रसेनजित,
- ध्रुवसंधि के पुत्र भरत,
- भरत के पुत्र असित,
- असित के पुत्र सगर,
- सगर के पुत्र असमंज,
- असमंज के पुत्र अंशुमान,
- अंशुमान के पुत्र दिलीप,
- दिलीप के पुत्र भागीरथ (बता दें कि भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था।)
- भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ,
- ककुत्स्थ के पुत्र रघु। (रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी होने के कारण इस वंश को रघुवंशी कहा गया।)
- रघु के पुत्र प्रवृद्धि,
- प्रवृद्धि के पुत्र शंखण,
- शंखण के पुत्र सुदर्शन,
- सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण,
- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग,
- शीघ्रग के पुत्र मरु,
- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक,
- प्रशुश्रुक के सुपुत्र अंबरीष,
- अंबरीष के पुत्र नहुष,
- नहुष के पुत्र ययाति ,
- ययाति के पुत्र नाभाग,
- नाभाग के पुत्र अज,
- अज के पुत्र दशरथ,
- दशरथ के चार पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न।
इसके बाद अंतिम अध्याय में श्री राम से जुड़े महत्वपूर्ण स्थानों का वर्णन करते हुए डॉ. विनोद बब्बर ने अपने पुस्तक की समाप्ति की है।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद श्री राम कथा का संपूर्ण पाठ करने की मेरी इच्छा और भी जागृत हो गई है। और प्रभु भगवान राम से यही प्रार्थना है कि वह अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखें, ताकि उनके चरित्र का न केवल निरंतर पान करता रहूँ, बल्कि अपने जीवन में उसे स्थापित भी कर सकूं। वर्तमान से जोड़ते हुए उसे उपयोगी बनाऊं, अपने लिए, अपनों के लिए, समाज के लिए संपूर्ण विश्व के लिए!
'जय श्री राम'
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